मेरी डायरी के पन्ने....

रविवार, 12 जनवरी 2014

बकवास...

ओ मुसाफिर इस तरह तू , है यहाँ हैरान क्यों। 
लगता है पहली दफा , इस देश में आया है तू। 
दूध की ये नालियां जो , दिख रही बहती तुझे। 
ये हकीकत में लहू है , जो लाल रह पाया नहीं। 
दिख रही तुझको यहाँ जो , हर तरफ ही होलिका।
वो हकीकत में है जलती , नव बधुओं की डोलियां।  

दिख रही तुमको यहाँ जो, होलिहारियो की टोलियां। 
वो हकीकत में खेलकर , आ रहीं खून की होलियां।
और ये जो भद्र पुरुष , तेरी बाँह में बाँह डाल रहे।
वो हकीकत में तुम्हारी , गर्दन को नापने जा रहे। 
ओ मुसाफिर दिख रहा , क्यों हैरान है इस तरह। 
लिख रहा क्यों व्यर्थ में , बकवास मै  इस तरह। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
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पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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