मेरी डायरी के पन्ने....

शनिवार, 30 नवंबर 2013

ना बेकल हो मेरे मन...

ना बेकल हो मेरे मन तू  इतना , समय की धारा  बहने दे। 
जो चीज लिखी जिस समय तुझे , वो समय पास तो आने दे। 
तेरे बस में केवल इतना , कर्तव्य निभाता अपना चल।
कंकर पत्थर काँटों को हटा , तू राह बनाता अपना चल।
है फूलो से जो प्यार तुझे , कलियो को ना मुरझाने दे। 
डाल से तोड़ कर उनको तू , राहों में कुचल ना जाने दे। 

हो अगर जरूरी तेरे लिए , कुछ मोहरों को पिट जाने दे। 
दो कदम हटा कर पीछे तू , फिर अपनी बारी आने दे। 
मोर्चे पर डटे रहना ही सदा , नहीं समय की होती माँग कभी। 
हो अगर जरूरी पीछे हट , दुश्मन को पहले पहचान अभी।   
मत जोश में खोना होश कभी , हर शब्द तौल कर तुम कहना। 
हर शब्द के कितने अर्थ यहाँ , तुम उसका ध्यान सदा रखना। 

क्या मिला है किसको अब तक , इससे तुमको लेना क्या ?
जो तुम्हे चाहिए उसके लिए , सोंचो तुमको करना क्या ?
तैयार रहो हर पल के लिए , कब कैसी समय की धार बहे। 
मझधार में नाव को खेने का , तुमसे समय की मांग रहे। 
ना बेकल हो मेरे मन तू  इतना , समय की धारा बहने दे। 
जो चीज लिखी जिस समय तुझे , वो समय पास तो आने दे। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 27 नवंबर 2013

कृपा करो...

चाह  रहा हूँ लिखना कुछ , अंत काल तक साथ रहे । 
बनकर वो इतिहास सदा , सदियो तक याद रहे। 
हर एक शब्द अनमोल रहे , हर शब्दो से नव प्राण जगे।
धूसर हो चुकी व्यवस्था में , हर एक शब्द नव क्रांति बने।
हर एक शब्द जो लिखे लेखनी , वो मेरी आत्मा से निकले। 
मानव मन के सभी भावो की , युगो युगो की प्यास बुझे। 

शोषित पीड़ित मानव की , वह एक सशक्त आवाज बने। 
देश काल  की सीमा से हट , वह सबका अधिकार बने। 
खण्ड-खण्ड कर दे वह जग में , फ़ैल रहे पाखण्डों को। 
झाड़ पोंछ कर करे सुसंस्कृत , सब धर्मो के पण्डो को। 
दे वह नूतन परिभाषाये , सब जीर्ण हो चुके ग्रंथो को। 
छाँट अलग कर दे सारे , कुत्सित जोड़े गए छेपक को। 

हर एक शब्द में प्राण रहे , हर एक शब्द में धड़कन हो। 
हर एक शब्द स्वयं गीत बने , हर शब्दो में संगीत बसे। 
हर एक शब्द स्वयं गोचर हो , हर शब्दो से नव राह दिखे। 
हर राह में वो सहयात्री बने , हर पथ के वो अन्वेषक हो। 
है यही चाह मेरे मन में अब , हे मातु सरस्वती कृपा करो। 
मुझ जैसे तुच्छ विचारक पर , तुम अपने अभय हाथ धरो। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

जागो पथिक..

नींद भले ही टूट गयी हो , स्वप्न अधूरे छूट गए हो ।
संकल्प अधूरा रहे न कोई , श्रम बल को माने सब कोई ।
स्वप्न तो केवल स्वप्न ही है , जिसका आधार ही कल्पित है ।
श्रम वो ठोस धरातल है , जिसका परिणाम सदा सुखित है ।
मन ज्यों होता है सजग , स्वप्न तभी खंडित होता ।
मन में जब कोई भ्रम होता , संकल्प तभी असहज होता ।

संकल्प और इस स्वप्नलोक का , केवल इतना नाता है ।
स्वप्न दिशा नव देता है , संकल्प सदा उसे पाता है ।
स्वप्न लक्ष्य सुझाता है , संकल्प विजित कर लाता है ।
फिर व्यर्थ व्यग्र ना रहो पथिक , स्वप्न तुम्हारा टूट गया ।
लो भोर हो रही है देखो , आती संकल्प निभाने की बेला ।
संकल्प सदा इतिहास बनाता , स्वप्न तो बस परिहास कराता ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क्या फर्क पड़ता है ?

मै क्यों तुम्हे खोजूं यूँ ही अपने से हर बार ?
मै क्यों तुम्हे बताऊ अपने से अपने मन का हाल ?
मै क्यों तुमसे पूंछू घेरकर तुम्हारा हाल-चाल ?
मै क्यों करूँ तुमसे जबरन सुख-दुःख का व्यपार ?
मै क्यों करूँ तुमको याद कर के परेशान बार-बार ?
जब नही है तुम्हे फुरसत अपनेपन को निभाने का यार ?

क्या फर्क पड़ता है तुम क्या हो रिश्ते में यार ?
तुम दोस्त हो , मेरे भाई हो, या हो तुम प्यार ?
मुझ पर तुम्हारा और तुम पर मेरा कितना है अधिकार ?
या कितने सुख-दुःख हमने साझा किये है पहले हर बार ?
कहो क्या फर्क पड़ता है अब इन सब बीती बातो से यार ?
जब नही है तुम्हे चाहत अपनापन निभाने का लगातार ?

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG