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रविवार, 14 जुलाई 2013

जो होना था वो हो ना सका..

जो होना था वो हो  ना सका , जो चाहा था वो मिला कहाँ ?
हम नियति नियंता बन बैठे , नियति को ना स्वीकार हुआ ?
छोटी सी नौका के बल पर , मझधार का वेग नापने को ।
हम प्रचण्ड नदी में थे उतरे , नाविक का भरोसा बस कर के ।
पर नियति को था स्वीकार नहीं , हम उसे चुनौती दे बैठें ।
धारा की दिशा पलट गयी , और नदी उलट कर बहने लगी ।

उस पार पहुँचना था हमको , इस पार ही नौका लौट पड़ी ।
मेरे मन की मन में रही , बस नियति की सब बात चली ।
इस बार चुनौती खाली गयी , अब मेरी चुनौती नियति ही है ।
जो मै भी नियति का हिस्सा हूँ , तो नियति ही मेरी धार बने ।
फिर से वो मुझे अवसर दे , फिर धारा नदी की बदले वो ।
इस बार बिना पतवार के मै , चाह रहा मझधार को मै ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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