मेरी डायरी के पन्ने....

मंगलवार, 7 मई 2013

ये नहीं है जगत वो...

ये नहीं है जगत वो , जिसको चाहा था मैंने ।
वो सपनों का महल था , ये है खण्डहर विराना ।
सोंचा था मैंने कुछ , हरे भरे बाग़ होंगे ।
फूलो की खुशबू और , फलो की मिठास होगी ।
सुबह शाम ठंडी-ठंडी , चलती बयार होगी ।
कभी कभी रिमझिम सी , आती बरसात होगी ।
बागो से कोयल की , आती पुकार होगी ।
मंदिर में बजते , घंटो की टंकार होगी ।
न्यायप्रिय राजा , और जनता खुशहाल होगी ।
धरती पर स्वर्ग की , वो एक मिसाल होगी ।

लेकिन ये स्वप्न था , और स्वप्न ही रह गया ।
महल सारे गिर गए , और खण्डहर ही रह गया ।
बाग़ सब उजड़ गए , कंटीले झाड़ो से भर गए ।
फूल तो खिले नहीं , फलो की क्या बात करे ।
चहुओर कौए है और , गिद्धराज राज करे ।
कर्कश सी तान पर , वो अपना बखान करे ।
चाहता है मन मेरा , लौट चलू घर की और ।
फिर ना कभी आऊ , भूले से इस बनवास में ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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