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गुरुवार, 10 नवंबर 2011

ये कैसा अपनापन है ?

कहते हो तुम मुझको अपना , एहसास कराते सदा यही ।
फिर भी राज छुपाते मुझसे , संशय नहीं मिटते दिल से ।
हर शब्द के दोहरे अर्थ खोजते , दोहरा चरित्र बनाये रखते ।
अपने जैसी ही मेरी भी , दिल में छवि बनाये रखते ।
तुम भले कहो इसे अपनापन, पर ये कैसा अपनापन है ?
इसे अपनापन कहे अगर तो , कहते किसे बेगानापन है ?

जब गले लगा न सके मिलकर , न दिल की बात कहें खुलकर ।
जब टीस छुपाये हम दिल की , न बात बताये अपने मन की ।
न खुल कर हम आरोप लगायें , न प्रश्नचिन्ह हम कोई बनाये ।
संबंधो की मर्यादा में रहकर , तीखे शब्दों के तीर चलाये ।
समझ सके न अपने से , क्यों विचलित है अपनो का दिल ।
फिर भी हम एहसास कराये , अपनो को अपनापन प्रतिदिन ।
ये बात सही है जीवन में , कुछ अंश चाहिए सबको निजता ।
लेकिन निज को निजता का , एहसास करना कहाँ उचित ?
मै कब कहता अपनेपन की , बस केवल मुझे जरुरत है ।
तुम झांको जरा अपने दिल में , क्या वहां नहीं मेरी सूरत है ?
निश्चित ही कही कमी है कोई , जो तुमको बदल न पाया हूँ ।
तेरा सब कुछ है बेगानों जैसा , फिर भी तुझको अपनाया हूँ ।
तेरे अपनेपन के आवरण को , मै अब तक भेद ना पाया हूँ ।
तुम भले कहो इसे अपनापन , पर  मै तुम्हे नहीं पा पाया हूँ ।


सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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