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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जो देखा क्या वो सच ही था ?

एक नहीं अनेको बार मन में उठते हैं सवाल , जो देखा क्या वो सच था ?
या तपते हुए रेगिस्तान में , कोई मृग मारीचिका दिखने का भ्रम था ?
या थके हुए तन के मन का , वो देखा हुआ बस कोई स्वप्न था ?
जो भी था वो जैसा भी था , अभी निश्चय नहीं वो सच ही था ।
मन चाह रहा निश्चित कर लूं , तथ्य सभी सुनिश्चित कर लूं ।
भूले-विसरे घटनाक्रम को , मानस पटल पर स्मृति कर लूं  ।

पृष्टभूमि के सब रंगों को , नूतन कर फिर मै ताजा कर दूं ।
मृतप्राय हो चुके शब्दों को , स्वकंठ से फिर जीवित कर दूं ।
चहरे जिनकी पहचान नहीं , उस समय वहां हो पाई थी ।
या जिनके चेहरों पर , तथस्त भाव-भंगिमा बन आयी थी ।
उन सभी अब पहचान करूँ , कुछ के कल्पित नाम धरूँ । 
लेकिन आज सुनिश्चित कर लूं , जो भी था सबके मन में ।

जो घटित हुयी घटनाये थी , क्या उनका निश्चित क्रम था ?
फिर जो भी जैसी घटित हुयी , क्या सब पूर्व सुनिश्चित था ?
क्या वो था आघात कोई , जो मेरे लिए रचित था ?
या वो था अभिशाप कोई , जिसे मुझे देखना निश्चित था ?
जो भी था वो जैसा था , किसी दिवा-स्वप्न के जैसा था ।
निश्चित नहीं मुझे अब तक , जो देखा क्या वो सच ही था ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
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पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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