मेरी डायरी के पन्ने....

बुधवार, 1 जून 2011

चीड़ के जंगल

चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से

मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से

अब शहीदों की चिताओं पर न मेले लगते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से

मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर चौराहे पर 
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से

बैठता हूँ जब भी "गौतम’ दुश्मनों की घात में 
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से

- "ले० कर्नल गौतम राजरिशी" की कलम से 

7 टिप्‍पणियां:

  1. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 07- 06 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

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  2. पढ़ चुके हैं इसे गौतम जी के ब्लॉग पर...फिर से पढ़कर अच्छा लगा.

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  3. 'मूर्तियाँ बन रह गए वो चौक पर चौराहे पर

    खींच लाये थे जो किश्ती , मुल्क की मझधार से '

    ................... अमर शहीदों की उपेक्षा की वेदना बड़ी सच्चाई के साथ उजागर हो रही है

    ...................सार्थक एवं मर्म को स्पर्श करती रचना

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  4. Sir ji
    JO achcha hai use talas kar bar bar samane lana chahiye.
    Maine ise padha to bar bar ise bar bar padane ka man karane laga isi liye ise "Meri Pasand" group me apane hi blog me samil kar liya

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  5. इतनी सुन्दर और प्रेरक रचना पढवाने के लिये आभार

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  6. ठीक कहा है कि हथियार से कोई मुद्दा नहीं सुलझता...
    बहुत सुंदर भाव....

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स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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