मेरी डायरी के पन्ने....

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

प्रतिध्वनि

सुनो इन गूंजती प्रतिध्वनियों को , 
जो थाती हैं हमारे शब्दों की ।
इंसानों सा ये नहीं मरती हैं ,
अनंतकाल तक ये यूँ ही विचरती ।

सुन पाओ तो ये हमें बताती हैं ,
हमारा इतिहास हमें सुनाती हैं ।
भेद कर ये हमारे मुखौटों को ,
असली चेहरा हमें दिखाती हैं ।

ये याद दिलाती हैं हमने ,
कितने वादे करके भुला दिये ।
पल-पल बदलते जीवन में ,
कितने मुखौटे प्रयुक्त किये ।

कितनी कसमे लेकर हमने ,
उन्हें बेशर्मी से छोड़ दिया ।
कितने दिलों को बेदर्दी से ,
हमने अब तक तोड़ दिया ।

हर गूँज हमारे शब्दों की , 
फिर लौट कर वापस आती है ।
भूली बिसरी बातों की ,
ये याद हमें दिलाती है ।

गलत सही का भेद हमें ,
शायद समझाना चाहती है ।
इसी लिए ये अनंतलोक का ,
विचरण कर वापस आती है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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