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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

बारम्बार अनेको बार ।

रचा गया यदि मुझे यहाँ तो , नियति को था मंजूर यही ।
बिना नियति की मर्जी के , कैसे बनता नियति नियंता ।

रचा नियति ने जगत यहाँ ,
बारम्बार अनेको बार ।
मिला जन्म है मुझको भी ,
बारम्बार अनेको बार ।

कभी बनाया उसने मुझको ,
धर्म-ध्वजा का पहरेदार ।
कभी बसाकर राज-पाठ को ,
सौप दिया मुझे उसका भार ।

कभी जगत के सभी तत्व का ,
करने दिया मुझे व्यापार ।
कभी चरण-रज धोने को मुझे ,
उसने झुंकाया बारम्बार ।

कभी उगाकर पंख बदन में ,
उसने दिया व्योम उपहार ।
कभी तैरना मुझे सिखाकर ,
पाने दिया सागर का प्यार ।

जितनी बार रचा जग उसने , किया जन्म मेरा उद्धार ।
यही चलता रहेगा अनंत काल तक , बारम्बार अनेको बार ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
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पर
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अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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