मेरी डायरी के पन्ने....

रविवार, 28 नवंबर 2010

आसान नहीं है...

आसान नहीं है हर एक पल, अपने मन माफिक जी लेना ।
दुःख-सुख के सम्मिश्रण को , विचलित हुए बिना पी  लेना ।
कभी इतराना - बल खाना , पतंग बंधी हो डोर में जैसे ।
फिर बेसुध होकर गिर जाना , कटी पतंग हो कोई जैसे ।
कभी सागर की लहरें सा  , बनकर ज्वार मचल जाना ।
फिर टकराकर तट से , अपने आवेगों पर संयम पाना ।

कभी अकड़ना ऐसे जैसे , तुंग हिमालय की चोटी हो ।
कभी पिघलना ऐसे जैसे , हिम गंगा तुमसे बहती हो ।
कभी उठाना शीश शान से , पेड़ खजूर के रहते जैसे ।
पल में शीश झुकाना फिर , बौर लगी हो आम में जैसे ।
आसान नहीं है हर एक पल , अपने मन माफिक जी लेना ।
हर पल जो यहाँ बीत रहा, उसे अपने मन माफिक कर लेना ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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