मेरी डायरी के पन्ने....

सोमवार, 29 नवंबर 2010

निन्यान्वे का फेर

प्रिय मित्रो एवं ब्लॉग जगत के समस्त आदरणीय वरिष्ठ गुरुजन, यदि आप को कभी ध्यान आया हो मै अचानक ब्लाग जगत से कहाँ गायब हो गया तो लीजिये आपके सामने प्रस्तुत है वह कारण जिसने मुझे अचानक ११.१०.२०१० से निन्यान्वे के फेर में लपेट लिया और उसी समयाभाव के कारण ना तो मै अपने ही ब्लॉग पर निरंतरता के साथ कोई पोस्ट लगा सका ना ही आप स्नेहीजनो के ब्लाग पर आ सका, क्या करे एक तो निन्यान्वे का फेर ही ऐसा होता है जो अच्छे अच्छो को लपेट लेता है (मेरी तो बिसात ही क्या.. जाने कितने बादल आये गरजे बरसे चले गए... मै भी एक छोटा सा बादल.......) और फिर दूसरे मै अपने स्वाभाव से भी मजबूर हूँ कि जो काम अपने जिम्मे लेता हूँ उसे करता हूँ तो अपना पूरा जी जान लगाकर करता हूँ वरना नही करता हूँ फिर चाहे जो हो जाय ...
खैर एक नजर आप भी इस कारण पर डाल लें.... इससे बेहतर (इस तरह का) कोई और कारण ना तो पूर्व में कभी आया होगा ना शायद निकट भविष्य में आने वाला है...   तो यदि आप भी इसके फेर में पड़ने के फ़िराक में हो तो मुझे जरुर बताये शायद मै आपकी कोई मदत करने का दुस्साहस कर सकूँ..
Sahara Comosale ... An Uniq MLM...Intro

रविवार, 28 नवंबर 2010

आसान नहीं है...

आसान नहीं है हर एक पल, अपने मन माफिक जी लेना ।
दुःख-सुख के सम्मिश्रण को , विचलित हुए बिना पी  लेना ।
कभी इतराना - बल खाना , पतंग बंधी हो डोर में जैसे ।
फिर बेसुध होकर गिर जाना , कटी पतंग हो कोई जैसे ।
कभी सागर की लहरें सा  , बनकर ज्वार मचल जाना ।
फिर टकराकर तट से , अपने आवेगों पर संयम पाना ।

कभी अकड़ना ऐसे जैसे , तुंग हिमालय की चोटी हो ।
कभी पिघलना ऐसे जैसे , हिम गंगा तुमसे बहती हो ।
कभी उठाना शीश शान से , पेड़ खजूर के रहते जैसे ।
पल में शीश झुकाना फिर , बौर लगी हो आम में जैसे ।
आसान नहीं है हर एक पल , अपने मन माफिक जी लेना ।
हर पल जो यहाँ बीत रहा, उसे अपने मन माफिक कर लेना ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 24 नवंबर 2010

सभ्यता की ओंट में

सभ्यता की ओंट में ,
कब तक चलेगी क्रूरता ।
पाखंड के व्यापार में ,
कब तक टिकेगी सभ्यता ।

जब धर्म के नाम पर ,
हो रहा व्यापार है ।
तब बचेगा धर्म कब तक,
बाजार के वो हाथ है ।



जब अमन के नाम पर ,
हो रहें है युद्ध सब ।
हैवानियत की भीड़ में ,
कब तक बचेगी इंसानियत ।


जब न्याय की ओंट में ,
हो रहा अन्याय है ।
न्याय के मंदिरों में ,
कब तक बजेगी घंटियाँ ।


मानवता के नाम पर ,
हर तरफ दानवता है ।
दानवों के बीच में ,
कब तक बचेगी मानवता ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

प्रतिकार

जाते हो तो जाओ प्रिये , मै कब तक तुमको रोक सकूँगा ।
प्रीति नही जब मुझसे तुमको , कब तक तुमको बांध सकूँगा ।
प्रीति बढाई जाती उससे , जिसको प्रीति निभाना आता ।
उसको क्या मै प्रीति सिखाऊ , जो बैरागी बनने जाता ।
ज्यों बिन बरखा के बादल , गरज-बरस कर चले गए ।
तुम भी आये पल-दो पल , फिर अंजानो सा चले गए ।

जब तुम्हे नहीं परवाह हमारी , क्यों मै ही तुमको याद करूँ ।
जब तुम मुझको बिसराते हो ,  फिर क्यों कोई फरियाद करूँ ।
ऐसा भी नही है यह जीवन , तुम बिन मुश्किल हो जायेगा ।
जब वक्त की धारा बदलेगी , हर घाव एक दिन भर जायेगा ।
जब प्रीति की आस जगायी  है , नया मीत हमें मिल जायेगा ।
तेरे बिन  भी जीवन पथ पर , एक जीवन साथी मिल जायेगा ।


जब जाते हो तो जाओ प्रिये , अब क्यों मै तेरी आस लगाऊं ।
तेरे दुःख में अपना जीवन  , अनंत काल तक क्यों भटकाऊं  ।
क्यों ना तेरे जाते ही मै , सुन्दर से किसी बाग में जाऊं ।
मदमस्त हवा के झोंको को , कोई सुन्दर गीत सुनाऊं  ।
अपना पराया भूल सभी को , नव आमंत्रण मै भिजवाऊं ।
भूतकाल को भुला कर अपना , वर्तमान मै पुन: सजाऊं ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

मेरा सच

आग और पानी का , नहीं मेल होता है ।
सदा सच बताना , नहीं खेल होता है ।
 दिलों में सभी के , कुछ अरमान होते हैं ।
कौन कहता है यहाँ , सब बेईमान होते है ।
मिलन क्या जरुरी है , अगर साथ चलना हो ?
शब्द क्या जरुरी है , अगर बात कहना हो ?

नदी के तटों का  , होता एक रिश्ता है ।
भावना के तल पर , नहीं कोई पिसता है ।  
बराबर का दोनों को , अधिकार होता है ।
आपस में उनके भी , कुछ प्यार होता है ।
कुछ ऐसा ही मेरे मन में , उदगार होता है ।
मेरी नज़रों में जिसका , सदा इजहार होता है ।

अगर तुम समझ पाओ , रिश्तों की जटिलता ।
नहीं तुम कहोगे इसे , मन की मेरे कुटिलता ।
मुझे मेरी सीमाओं का , एहसास है सदा ही ।
मगर क्या तुम्हे मुझपर , विश्वास है जरा भी ।
करके साहस तुम सदा , खुला सच मुझसे कहना ।
नजरें बचाकर मुझसे तुम , ना कभी संग मेरे रहना ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 1 नवंबर 2010

एकै साधे सब सधे

साथियों
              आज हर तरफ भ्रष्टाचार,लूट-घसोट  का बोलबाला है, हर कोई इससे व्यथित है। जिसको देखो वही कहता है कि फलां विभाग में बड़ा भ्रष्टाचार,लूट-घसोट का बोलबाला है मगर उसी व्यक्ति जब उसके अपने कार्य-क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार,लूट-घसोट के बारे में पूंछो तो वो अपना मुह घुमा लेता है या मात्र मुस्कुराकर रह जाता है ।

प्रशासन से लेकर शासन तक के सभी जिम्मेदार अधिकारी,पदाधिकारी सदैव यही कहते है कि वो लगातार (नीचे व्याप्त) भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास कर रहें है मगर भ्रष्टाचार है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता है।
आखिर क्यों ?
कहाँ किस स्तर पर कमी रह जा रही है भ्रष्टाचार का नाश करने में ?
कहीं हमारा प्रयास " पर उपदेश कुशल बहुतेरे " वाला तो नहीं है ?

तो जनाब
ये जगत का नियम है कि धारा प्रवाह की दिशा सदैव ऊपर से नीचे की तरफ होती है।

अत: यदि श्रोत निष्कलंक हो तो मध्य या अंत में चाहे जितना मिलावट क्यों ना हो जाय , पूरी धारा को कभी पूर्णतया कलुषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि पवित्र उदगम लगातार नयी उर्जा , नयी शक्ति और पवित्रता का प्रवाह करता रहता है जिसके संचरण से मार्ग में होने वाले परिवर्तन कभी स्थाई स्वरुप नहीं लेने पाते है ।

परन्तु

यदि उदगम ही दूषित,जहरीला हो जाय तो पूरी धारा दूषित हो जाएगी और कोई लाख कोशिश  करे,वो कछारों पर पवित्रता नहीं बनाये रख सकता क्योंकि वो उदगम का स्वरुप नहीं बदल पायेगा ।

और ये सिद्धांत केवल नदी, झरनों पर ही नहीं वरन मानव समाज पर भी लागू होती है ।

अत: यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करना है तो देश,समाज,धर्म  के शीर्ष  शिखर पर बैठे लोगों को पहले अपनी पवित्रता बनाये रखना होगा और फिर कहा गया है कि "एकै साधे सब सधे,सब साधे सब जाय" ।


                                                     © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG