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बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

सब कुछ है, कुछ भी नहीं...

सब कुछ है, कुछ भी नहीं , मूरत है प्राण नहीं ।
मानव है इन्सान नहीं , मंदिर है भगवान नहीं ।
चार दीवारे ऊपर छत , लेकिन घर का आभास नहीं ।
मोटे मोटे धर्म ग्रन्थ हैं , जिनमे धर्म का सार नहीं ।
गली गली विद्द्यालय हैं , जहाँ शिक्षा का मान नहीं ।
गुरुजन हैं बहुतेरे मगर , विद्दया का देते दान नहीं ।

अगणित पण्डे और पुरोहित, सही कर्म कांड का ज्ञान नहीं ।
शासन सत्ता सभी यहाँ , पर नीति नियम का ध्यान नहीं ।
अधिकारों के पालन कर्ता, हैं अधिकारी अधिकार नहीं ।
लोकतंत्र का राज यहाँ , पर जनता का सम्मान नहीं ।
न्याय पालिका स्वतंत्र यहाँ , जो करती पूरा न्याय नहीं ।
कलयुग की ये है माया , सब कुछ है पर कुछ भी नहीं ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।
    वाह! ऐसी कवितों से जीने की उर्जा मिलती है.
    ..आभार.
    बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।
    @ विवेक मिश्र जी..
    ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.

    जवाब देंहटाएं
  2. कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ पर प्रशंसा के लिए शब्द नही.........कमाल का लिखा है आपने

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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