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शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ।

१.
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  एक दूजे को दोनों प्यारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  अंधे  लूले   हैं   यहाँ  सारे  ।

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , राज पथों पर  हैं अंधियारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  होते  रोज हैं वारे - न्यारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जिंदाबाद कहो मिल सारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जब बँटे रेवड़ी खाए सारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , कलयुग के दोनों है मारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जो अपने वो  हमें दुलारे ।
२.
कौन पूंछता सत्य है क्या , किसे पड़ी है न्याय की ?
बस देख तमाशा पैसे का , यहाँ पैसा दे इंसाफ भी ।
रोजी रोटी उसे मिलेगी , जो बाँटेगा अपना हिस्सा ।
किसकी बारी आने वाली , ये सब है केवल किस्सा ।
सब्र नहीं यहाँ किसी को , सबको जल्दी घर है जाना ।
चाह रहे है यहाँ सभी , एक छोटा रस्ता ही अजमाना । 

लेन देन से चलती दुनियां , जब मूलमंत्र है आज ये ।
खोजे कौन यहाँ भ्रष्टों को , हैं हर घर में वो आज रे ।  










© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

  1. जीने की मजबूरी और भ्रष्टाचार के बिना नहीं जीने देने वाली सरकारी व्यवस्था के सभी मारे हैं ...निगरानी और कार्यवाही की व्यवस्था तो छोडिये मंत्रियों और अधिकारीयों को कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं है ऐसे में सुधार की आशा नहीं के बराबर है ...

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  2. सच लिखा है आपने आज भ्रष्टाचारने हमारे देश को खोखला कर दिया है !

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स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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