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मंगलवार, 11 मार्च 2014

श्रापित...

क्या कहे किससे कहें , क्यों कहे हम निज व्यथा। 
व्यर्थ है कहना यहाँ कुछ , जहाँ लोग सुनते हैं कथा। 
हाँ कथा ही सुन रहे सब , भूल कर निज संवेदना। 
हो गए जड़वत जहाँ सब , क्या वो समझेंगे वेदना। 
यदि सत्य को भी सत्य का , जब पड़े देना प्रमाण। 
समझ लीजै तब वहाँ , बस निकलने वाले हैं प्राण। 

आम क्या और खास क्या , जब यहाँ दोनों व्यथित। 
कौन पोंछे आँसू किसके , राज्य ही हो जैसे श्रापित। 
किस लिए किसके लिए , हम करें फिर कुछ यहाँ। 
मृत्यु का ही उत्सव मानते , लोग हों जब सब यहाँ। 
फिर कौन शोषित कौन शोषक , ये प्रश्न ही बेकार है। 
स्वछंदता से कर रहे जब , सब यहाँ व्याभिचार हैं। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG


1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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