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बुधवार, 14 अगस्त 2013

बाजी..

मैंने सुना कुछ लोग यहाँ , हर सांस में बाजी चलते है ।
चौपड़ के पासो के बदले , इंसानों की बाजी चलते हैं ।
वो दांव लगते जीवन का , जो होता नहीं उनका कभी ।
वो हर गोट फँसते ऐसी है , बच के कोई निकले ही नहीं ।
वो घेर कर बाजी चलते है , कोई घर नहीं खाली रखते है ।
वो रिश्तो का दांव चलाते है , सच झूंठ की गोट बढ़ाते है । 
बलि देकर प्यांदो के अरमां , सतरंज के वजीर बचाते है ।
सदा आड़ी-तिरछी चालो से , वो खेल का मजा उठाते है ।
सोंची-समझी चालो से वो , स्वयं की पहचान छिपाते है ।
गिरगिट जैसा रंग बदल कर , सबको धोखा देते जाते है ।
यूँ खेल बहुत ही अच्छा वो , आदतन खेलते जाते है ।
मगर कभी कभी वो भी , प्रतिद्वंदी गलत चुन जाते है । 
फिर चाहे जितने अज्ञाकारी , उनके विसात के प्यांदे हो ।
जब खुल कर सामने हम होंगे , किला बिखर ही जायेगा ।
साथ रहा हूँ जिनके सदा  , खेल उन्ही से उनका सीखा है ।
देख देख कर बाजी उनकी , हर दांव का तोड़ भी सीखा है ।
तो बेहतर है कह दो उनसे , ना मुझको ही गोट बनाये वो ।
चाल चलेगे जब हम अपनी , ना सहन मात कर पाएंगे वो ।
(पूर्व में कार्य-क्षेत्र से जुड़े हुए उदगार..)


सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

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"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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