मेरी डायरी के पन्ने....

रविवार, 19 मई 2013

उलटबाँसिया...

कहे कबीर बुलाकर मुझको , एक अजूबा होए ।
धरती बरसे अम्बर भींजे , बूझे बिरला कोय ।
मैंने कहा सुना है गुरूजी , ये गजब अजूबा होय ।
एक अजूबा मैं भी देखा , अब बूझे उसको कोय ।
प्यासा बैठे घर पर अपने , नदिया चलकर जाय ।
बूझे जो कोई विरला इसको , वो मेरा गुरु कहाये ।

हम दोनों ने एक दूजे पर , अपने अपने दाँव लगाये ।
मैंने अपनी खातिर फिर , अपने सारे जतन लगाये ।
मैंने कहा सुनो भाई साधो , ये  बात तुम्हारी ठीक है ।
प्रथम हो गया अंतिम और , साधन हो गया साध्य है ।
जब भी किसी कार्य में हम , होते है तल्लीन बहुत ।
कार्य बदल जाता कारण में , कारण बनता कर्म तब ।

सुनकर कहा कबीर ने मुझसे , एक सी है ये दोनों पहेली ।
हम तो प्रेम पुजारी थे ही , तुम भी बन गए नए पुजारी ।
जब जब बहती प्रेम की नदिया , यू  ही होती उलटबाँसिया ।
कभी बरसती धरती है तो , कभी है चलकर जाती नदिया ।
जब जब लगन लगेगी मन से , साधन होगा साध्य तब ।
समझ न पाए जो कोई  इसको , उसको क्या  समझाये अब 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

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"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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