मेरी डायरी के पन्ने....

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मन की गाँठें....

आसान नहीं मानव मन की , सारी गाँठो का खुलना ।
खुली किताब सा रखकर उनको , सारे अंतर्द्वंद समझना ।
कुछ भाव सरल होते है इतने , जैसे हों छुई-मुई की डाले ।
आगे बढ़कर पकड़ सके , इससे पहले स्वयं संकुचित हो जाते । 
कुछ तथस्त भाव की गाँठें हैं , मज़बूरी उनकी रहना तथस्त ।
क्या सच है क्या झूंठ है इसको ,  पहचान नहीं पाते अभ्यस्त ।
कुछ गाँठे हैं शंकाओ की , हर बात में वो प्रश्नचिह उठाती ।
सभी व्यक्तियों के चरित्र पर , वो एक धब्बा सदा लगातीं ।
कुछ गाँठे होती जटिल बहुत , मन को वो उलझाती हैं ।
अपने संग संग औरो को भी , भ्रम में सदा फँसाती हैं ।
एसी ही कुछ गाँठो का , मैंने सोचा था विश्लेषण करू ।
हो सके अगर अपने मन की , गाँठो का भी दर्शन करू ।
लेकिन शायद मन की गाँठे , संगठित बहुत ही होती हैं ।
कोई इनका करे विश्लेषण , यह बात इन्हें अखरती   है ।
आगे बढ़ कर सभी कपाट , फ़ौरन बंद वो करतीं है ।
व्याकुल करके अंतर्मन को , स्वयं को सुरक्षित करतीं है ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

(हिन्दी में प्रतिक्रिया लिखने के लिए यहां क्लिक करें)