मेरी डायरी के पन्ने....

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

द्वन्द..

भटक रहा क्यों मन मेरा , मै जान न पाता हूँ स्वयं ही ।
मन के द्वन्द बढाकर मै , क्यों हर्षित होता हूँ स्वयं ही ।
मै स्वयं ही बनाता भंवरे हूँ , फिर नाव फँसता उसमे मै ।
लाभ हानि की बातो को , फिर व्यर्थ उठता मन में मै ।
खोज रहा उन भावो को , जो मुझको आहत कर जाते है ।
मेरे मर्मस्थल पर जो , अपनी छाप छोड़ कर जाते हैं ।
इसका कोई अर्थ नहीं , वो आहत कितना करके गए ।
क्या मूल में भावो के , क्या वो मुझसे कह के गए ।

मै तो बैठा था पहले से , किसी कारण से कुछ जला-भुना ।
जो बही अचानक पुरवाई , फिर आग बढ़ गयी कई गुना ।
मै खोज रहा था रेतीले , टीलो पर पिछले पदचिन्हों को ।
एक हवा की आहट ने आकर , भुला दिया सब चिन्हों को ।
क्या है सच क्या झूँठ यहाँ , मै स्वयं ही जान न पाता हूँ ।
मन के इस भटकाव को मै , क्यों रोंक नहीं अभी पाता हूँ ।
फिर देता हूँ विस्तार निरंतर , अपने मन के द्वंदों को ।
देख रहा हूँ बनते बिगड़ते , अपने ही प्रतिबिम्बों को ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

(हिन्दी में प्रतिक्रिया लिखने के लिए यहां क्लिक करें)