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शुक्रवार, 10 जून 2011

हे एकलव्य...

भूल कर तुम लक्ष्य को ,
पशु सा भटकते क्यों यहाँ ।
नित खोखले आदर्श का ,
क्यों स्वांग भरते तुम यहाँ ।
भूल कर रण-भूमि को ,
क्या कर रहे रंग-भूमि में ।
छोड़ कर शैया सुहानी ,
क्यों सो रहे हो भूमि में ।
कर्म को त्याग कर ,
कब चल सका सिद्धांत जग में ।
भाग्य तुम कहते जिसे ,
वो कर्म के होता है बस में ।
खोखले सिद्धांत से ,
मिलता नहीं कुछ भी यहाँ ।
भोजन बिना पेट की ,
है छुधा मिटती कहाँ ।
सीखना तुमको पड़ेगा ,
तोड़ चक्रव्यूह का ।
जानना तुमको पड़ेगा ,
भेद सारे व्यूह का ।
दूसरों के बाहु-बल का ,
तुम भरोसा क्यों करो ।
देख कर अवरोध को ,
तुम क्यों कदम पीछे करो ।
लक्ष्य को पहचान कर ,
दृष्टि अर्जुन सा करो ।
एकलव्य सा सीख कर ,
हर साध्य को अपना करो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

7 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

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  2. कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
    इसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर प्रेरक रचना...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत प्रेरक और सिधान्तिक रचना ,आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. ओजपुर्ण रचना। आभार।

    जवाब देंहटाएं

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आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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