भूल कर तुम लक्ष्य को ,
पशु सा भटकते क्यों यहाँ ।नित खोखले आदर्श का ,
क्यों स्वांग भरते तुम यहाँ ।
भूल कर रण-भूमि को ,
क्या कर रहे रंग-भूमि में ।
छोड़ कर शैया सुहानी ,
क्यों सो रहे हो भूमि में ।
कर्म को त्याग कर ,
कब चल सका सिद्धांत जग में ।
भाग्य तुम कहते जिसे ,
वो कर्म के होता है बस में ।
खोखले सिद्धांत से ,
मिलता नहीं कुछ भी यहाँ ।
भोजन बिना पेट की ,
है छुधा मिटती कहाँ ।
लक्ष्य को पहचान कर ,सीखना तुमको पड़ेगा ,दूसरों के बाहु-बल का ,
तोड़ चक्रव्यूह का ।
जानना तुमको पड़ेगा ,
भेद सारे व्यूह का ।
तुम भरोसा क्यों करो ।
देख कर अवरोध को ,
तुम क्यों कदम पीछे करो ।
दृष्टि अर्जुन सा करो ।
एकलव्य सा सीख कर ,
हर साध्य को अपना करो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
जवाब देंहटाएंकुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
जवाब देंहटाएंइसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !
बहुत सुन्दर प्रेरक रचना...
जवाब देंहटाएंgreat article!
जवाब देंहटाएंSwachchh Sandesh
बहुत प्रेरक और सिधान्तिक रचना ,आभार
जवाब देंहटाएंओजपुर्ण रचना। आभार।
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना..बधाई.
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