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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

नादानों सा क्यों भटक रहे

नादानों सा भटक रहे , क्यों अंजानो सा अटक रहे ।
क्या आज हुआ तुमको मानव , क्यों अपने को तुम भूल रहे ।
तुम ईश्वर की सर्वश्रेष्ट कृति , आशाएं  तुमसे उसे बड़ी ।
पुरषार्थ की राह में आलस्य की , देखो क्यों है दीवार खड़ी ।
मानवता की बगिया में , दानवता कैसे पली बढ़ी ।
जहाँ प्रेम के फूल थे लगने ,  क्यों नफ़रत की है बाड़ खड़ी ।

सोचो हुयी कहाँ ये भूल , किसने चुभाये तुमको शूल ।
अपने मन का सागर मथ कर , खोजो क्या है इसका मूल ।
शायद कुछ रत्न मिले तुमको , अंतर्मन के मंथन से ।
या मुक्त हो सको तुम अपने , मन में घुले हलाहल से ।
रत्न तुम्हारे अपने होंगे , हैं नीलकंठ विष पीने को ।
कर्म तुम्हारे अपने होंगे , है भाग्य केवल फल देने को ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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