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शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

चाहत और दीवानगी

चाहतो की भी हदें , होनी जहाँ में चाहिए ।
बिन हदों की चाहतों को , छोड़ देना चाहिए ।
यदि हदें होंगी नहीं , चाहत दीवानगी कहलाएगी ।
इंसानियत का वो कभी , कर भला ना पायेगी ।

दीवानगी हो प्यार की , या दीवानगी नफ़रत की हो ।
दीवानगी हो दान की , या दीवानगी लालच की हो ।
दीवानगी से आज तक , इंसानियत पनपी नहीं ।
दीवानगी की कोख में , हैवानियत पलती रही ।

बाँटने की बात को , दीवानगी सहती नहीं ।
दूसरों का भी है हक़ , दीवानगी कहती नहीं ।
दीवानगी इन्सान को , जालिम बनाया करती है ।
भूल कर सारी हदें , मंजिलो को पाया करती है ।


वो भुला देती है अंतर , क्या बुरा, अच्छा है क्या ?
याद उसको रहता है , क्या मिला,मिलना है क्या ?
तो छोड़ कर दीवानगी , बस चाहतों तक ही रहो ।
चाहतों की हर हदों के , हद से पहले तुम रुको ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर विचार को आपने कविता में ढाला है ।

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  2. बहुत ही सुन्दर पोस्ट .बधाई !

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  3. वाह विवेक भाई, बहुत खूब अंतर किया है आपने चाहत और दीवानगी में। बहुत अच्छे शब्दों में पिरोया है इसे। बधाई!!

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स्वागत है आपका
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पर
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अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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