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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?

नफ़रत के जब बीज बो रहे, धर्म ध्वजा के पहरेदार ।
कैसे बचेगी मानवता , यहाँ सब के सब हैं लम्बरदार ।
पहले तो दीवारें उठीं , सब धर्मो के बीचो बीच ।
फिर खिच गयी लकीरे देखो , जाति-पांति के बीचो बीच ।
शेष बचा था जो कुछ देखो , वर्गों में फिर बाँटा गया ।
चुन चुन कर इंसानों को , इंसानों से ही काटा गया ।

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई , बौध-जैन-यहूदी भाई ।
सभी हैं ऊँचे एक दूजे से , सब के सब आवारा भाई ।
सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
कौन बनाता किसे यहाँ , कौन चलता है इस जग को ?
शायद उनके मध्य भी हो , बँटवारा उनके कर्तव्यों का ।
कोई साझा सरकार बनाकर , सभी चलाते हो इस जग को ।

फिर भी कोई एक तो होगा , जिसने सबको पैदा किया ?
फिर जाने कब क्यों किसने , खायीं मध्य में खोद दिया ।
अब जो बीत गया सो बीत गया , जो आने वाला है वो देखो ।
सत्य गुनो मिल सब धर्मों का , आडम्बर को कचड़े में फेंको ।
काश अगर सब सुन पायें , बस अपने अंतरमन की बात ।
बच जाये ये धरती और , बच जाये मानवता की लाज ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
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पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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