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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पछतावा

सोंचता होगा खुदा भी , क्यों बनाया इस जहाँ को ।
जानवर तक ठीक था , पर क्यों बनाया आदमी को ।
आदमी तक ठीक था , क्यों दिया उसे बुद्धि इतनी ।
बुद्धि तक भी ठीक था , क्यों किया उसे शुद्ध इतनी ।
छोड़ कर इंसानियत , अब वो देवता बनने चला ।
अपनी हकीकत को भुलाकर , स्वांग है रचने लगा ।

जन्म देने वो लगा , विज्ञान से आदमीं ।
नष्ट करने वो लगा , प्रकृति की सादगी ।
है उतारू तोड़ने को , सारे जहाँ का संतुलन ।
जाने क्या है सोंचता , पढ़ नहीं पाता मै मन ।
अब तो मुश्किल होती है , पहचानने में श्रृष्टि अपनी ।
सोंच कर पछता रहा हूँ , जो हुयी थी भूल अपनी ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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