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सोमवार, 20 सितंबर 2010

आँधियों का दौर है

आँधियों का दौर है , सर झुकाकर चलने दो ।
आँधियों के बाद भी , सर उठाकर चलना है ।
जग भले कहे इसे कायरता , कौटिल्य की ये कूटनीति ।
इसके बिना सफल कब , होती कोई युद्ध नीति ।

हर सर की होती मर्यादा , हर दर पे झुकना ठीक नहीं ।
लेकिन बिना सबब के कोई , शीश गवाँना उचित नहीं ।
वो वृक्ष उखड जाते है जो , हर छण तन कर रहते है ।
जीवित रहते वृक्ष वही जो , कुछ पल नम्र भी रहते हैं ।

है आज अगर सत्ता उनकी , मदमस्त उन्हें तुम और करो ।
तुम शीश झुकाकर भले चलो , मठ्ठे से जड़े उनकी भरो ।
फिर जब होगा अंतिम फैसला , सीने पर तीर चलाना तुम ।
विस्मित करके अरि-दल को , फिर विजयी शीश उठाना तुम ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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