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मंगलवार, 21 सितंबर 2010

हवस तो हवस है

हवस इन्सान को शैतान बना देती है ,
अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देती है ।
आदमी को आदमी का शिकार बना देती है ,
औरों की लाशों पर महल बना देती है ।
हवस में सोंचने की बात कहाँ होती है ,
अपने पराये की पहचान कहाँ होती है ।
इसमे तो जितना डूबो वो भी कम है ,
टूटते रिश्तों का होता कहाँ गम है ।
हवस शैतान की भूँख को जगती है ,
मन में हैवानियत का भाव वो उठती है ।
जुर्म और जरायम का बाजार वो चलती है ,
इन्सान की जरूरते अनंत तक बढ़ाती है ।
हवस तो हवस है साध्य चाहे जो हो ,
व्यक्ति से वस्तु तक साधन चाहे जो हो ।
भले वो पेट की हो लाचार हवस ,
या फिर जिस्म की रूपसी हवस हो ।
हवस को चाहिए हर समय कोई शिकार ,
खेल कर जिससे हो सके वो फरार ।
रिश्तों और भावना की उसे है फ़िक्र कब ,
हर तरह की भूँख से  उसका है करार ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही परिभाषित किया..हवस में इन्सान इन्सान नहीं रह जाता.

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  2. बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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