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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

नसीहत....

वक्त की है ये नसीहत , छोड़ दे अभिमान को ।
मत कुचलना तू कभी , किसी गैर के मान को ।
आज तेरा राज है , किसने देखा कल यहाँ ।
एक पल की देर में , है बदलता सब जहाँ ।
दोस्त कब दुश्मन बने , कब बिखर जाये समां ।
सर छुपाने के लिए , जाना पड़े तुझको कहाँ ।

झोपड़े जिनके जलाता , सेंकने को आग तू ।
क्या पता उनके यहाँ , हो शरण को मोहताज तू ।
याद रख इन्सान तू , ये वक्त ही है शहंशाह ।
उसकी मर्जी से ही बनते , और बिगड़ते सब निशां ।
जो भी कर तू सोंच कर , पछताना ना तुझको पड़े ।
सोंच कर बीता हुआ , शर्माना ना तुझको पड़े ।
एक सा बस रह सदा , इंसानियत ना भूल तू ।
वक्त की सुनकर नसीहत , सँभल जा इन्सान तू ।
खो गया अवसर अगर , फिर ना वो मिल पायेगा ।
अभिमान की भरपाई तू , ना अंत तक कर पायेगा ।
गर्व में बोले हुए , हर शब्द पर पछतायेगा ।
मुह छुपकर तू जहाँ से , किस तरह रह पायेगा ।
चाहते हैं हम सभी , ना हालात बिगड़े कभी ।
वक्त ने इन्सान से , कब वादा किया कोई कभी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

  1. 'नसीहत' आजकल की पीढ़ी के युवाओं को नसीहत के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई। आपकी रचनाओं से ही लगता है बिल्कुल विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी हैं आप।

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  2. .

    जिंदगी के सरलतम फलसफे , बेहद ख़ूबसूरती से समझाए आपने....आभार

    .

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स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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