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रविवार, 5 सितंबर 2010

मँगनी के आदर्श

सागर कितना भी गहरा हो , हलचल उसमे भी होती है ।
पर्वत कितना भी स्थिर हो , कम्पन उसमे भी होती है ।
धरती कितनी ही भारी हो , अस्थिर वो भी होती है ।
मन कितना ही चंचल हो , जड़ता उसमें भी होती है ।

सागर में हलचल हो तो , लहरें मतवाली होती है ।
पर्वत में कम्पन हो तो , धरती हिलने लगती है ।
धरती अस्थिर होती जब , महा-प्रलय तब होती है ।
मन में जड़ता आती जब , दिल में कटुता भरती है ।

फिर भी तुम ये कहते हो , सागर सा मै गहरा बनूँ ।
पर्वत की ऊँचाई पाकर , धरती सा स्थिर मै रहूँ ।
मन की चंचलता को पाकर , जड़ता अपनी दूर करू ।
औरों के मँगनी आदर्शों से , अपने को परिपूर्ण करू ।

अस्थिर हुआ अगर मेरा मन , फिर सीमाओं का ध्यान कहाँ ?
सीमाओं का अतिक्रमण हुआ , फिर मर्यादाओं का ध्यान कहाँ ?
चंचलता आएगी जब मन में , फिर अपनो का ज्ञान कहाँ ?
कम्पित हुआ अगर तन-मन , रुक पाने का अधिकार कहाँ ?

सोँच कर देखो तुम एक पल, क्या होगा इसका परिणाम कभी ।
जब मुझमे हलचल होगी , क्या थम पायेगा मेरा ज्वार कभी ।
तो जो भी हूँ मै जैसा हूँ , तुम करो उसे स्वीकार यहाँ ।
मँगनी के आदर्शों का , किसी व्यक्तित्व में है स्थान कहाँ ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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