मेरी डायरी के पन्ने....

बुधवार, 1 सितंबर 2010

मेरा दीवानापन

आपने पूंछा है हमसे , क्या हम दीवाने थे कभी ।
आपको क्या लगता है , हम है दीवाने अब नहीं ।
दीवानगी के साथ तो , नाता मेरा जन्मों से है ।
दीवानगी के संग ही , गुजरा मेरा बचपन भी है ।
दीवानगी के जोर था, जब बचपन हुवा किशोर था ।
आयी जवानी जब मेरी , दीवानगी का शोर था ।
मै दीवाना ही पैदा हुवा, दीवाना ही मरना मुझे ।
दीवानगी को छोड़ कर, है क्या जिसे करना मुझे।
उम्र है बीती ज्यों-ज्यों मेरी , बदलती रही दीवानगी ।
बँध कर ना जी पाये कभी , हमने सीखी आवारगी ।
तो प्रश्न ही ये व्यर्थ है , जिसका नहीं कुछ अर्थ है ।
दीवाना मै प्रतिपल रहा , किसका यही बस प्रश्न है ।
जिसका मिलना अनिश्चित है , हम क्यों उसके दीवाने हो ।
जो चीज हमें मिलना ही  है , हम क्यों उसके परवाने हो ।
मै हूँ दीवाना उन सब का , जो नाम किसी के हुए नहीं ।
मै हूँ परवाना उन सब का , जिसकी पहचान हुयी नहीं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

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मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
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पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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