विषाद के क्षणो का, सदा कारण नहीं होता है ।
और ऐसा होना भी, अकारण नहीं होता है ।
ज्यों दूर गगन में कहीं, बादलों से ढ्क गया चाँद हो ।ओझल हो तारे सभी पर, उन्हें ना इसका गुमान हो ।
कुछ इसी तरह से जब , मन अज्ञात भावों से घिरता है ।
अकारण ही अवसाद का, एहसास मन में भरता है ।
दूर जाना हो अगर , अवसाद के इन बादलों से ।चीर दो अज्ञात को , ज्ञात के तलवार से ।
तुम नियंता मन के हो , मन को तुम्ही चलाते हो ।
ज्ञात और अज्ञात का , अंतर भी तुम्ही बनाते हो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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