वो एक जमाना था पहले ,
लोग गब्बर के नाम से कांपते थे ।
दूर पचास पचास कोसों तक ,
गब्बर का नाम सुनकर छुप जाते थे ।
तब कहर हुआ करता था गब्बर का ,
हर गाँव-शहर हुआ करता था गब्बर का ।
समय बदला जमाना बदल गया ,
दिलों में खौफ का तराना बदल गया ।
अब है खौफ हर तरफ मच्छरों का ,
हर कोई शिकार होता आज मच्छरों का ।
हालत ये आज हर दवा बेअसर है ,
हर गोली , हर टिकिया सब बेअसर है ।
चीखता है गब्बर पागलों सा आज भी ,
सूअर के बच्चों गिनो कितने है मच्छर ?
कालिया कहता, सरदार गिने तो कैसे ,
जितनी आती है गिनती उससे ज्यादा हैं मच्छर ।
बहुत बेइंसाफी है सरदार ! , मरते नहीं मच्छर ,
अकेली बची है टिकिया और अनगिनत हैं मच्छर ।
तो पचास पचास कोस दूर से ,
अब सुनकर आवाज मच्छरों की ।
छुप जाता है कहीं दुबककर गब्बर ,
बारीक़ जाली वाली मच्छरदानी के अन्दर ।
फिर भी कहाँ छूटता है मच्छरों से पीछा ,
खून के बदले खून ही मांगता है मच्छर ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "
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