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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

जिन्दगी शोलों में तप-तप के...."ओशो"

जिन्दगी शोलों में तप-तप के निखरती ही गयी
जितनी ताराज हुयी, और सँवरती ही गयी ।
तल्खियाँ जैसे फिजाओं में घुली जाती हैं ।
जुल्मते हैं कि उमड़ती ही चली आती हैं ।
आशियाने के करीं बिजलियाँ लहरातीं हैं ।
आग और खून के तूफां भी चले आते है ।
मुह कि खाते हैं,पछड जाते है,जक पाते है ।
जितनी तराज हुई जिंदगी , संवरती ही गयी ।
आग के शोलों में तप तप के निखरती ही गयी ।
आगें जलती ही रहीं , शोले बरसते ही रहे ।।

(द्वारा ओशो रजनीश )

1 टिप्पणी:

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आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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