मेरी डायरी के पन्ने....

रविवार, 15 अगस्त 2010

धरती का बंटवारा

["संगीनों के साये में सन्नाटा" ,  यही कहता है आज-कल का अखबार "कश्मीर" के लिए]
तो हम कहना चाहते है इस देश में छुपे 'कुछ दोगले नापाक लोगों' के आका 'पाकिस्तान' से

'ईश्वर'   ने   इस   दुनियां   में ,   'धरती'    एक    बनायीं     थी ।
जब तुमने उसको बाँट लिया, फिर उसका दोष कहाँ है भाई ।

फिर भी  तुमको  चैन  नहीं ,   हक़  छीन   रहे   तुम   औरों  का ।
अपने  घर  में अँधियारा है  पर , चिंता  सता रही है गैरों का ।

प्यार से मांगो आकर अगर ,  हम  अपना  सर्वस   लुटा  देंगे ।
ताकत  से  कुछ छीनोगे तो  ,   घुटनों  पर  तुमको   ला   देंगे ।

शांति  हमें  प्यारी  है  लेकिन ,  रण   से   ना   हम   कभी  डरेंगे ।
अपने   जान   की   बाजी लगा  ,   हम   जान  तुम्हारी  हर  लेंगे ।

बेहतर है तुम  दूर  रहो ,  अपने 'घटिया नापाक इरादों' से ।
'भाईचारे'   को  दफनाकर  तुम ,  ना ललकारो रण भूमि में ।

हमको    है   'संतुष्टि'  सदा  ,  जो   हिस्सा   हमको  तुमने  दिया ।
तुमको    अभी   सीखना  है ,   'बँटवारे'  ने  क्या   सिला  दिया ।

हमें    नहीं   चाहिए   ऐसा   कुछ ,   जो   तेरे   हिस्से   आया   है ।
हमने चाहा   था   कभी नहीं , ये बटवारा तुमने करवाया है ।

हम 'भारत माँ'  के बेटे है , यह जननी सिंह जन्मती है ।
वह कोख अभागी होगी जो , तुम सा सियार जन्मती है ।

तुम   दूर   रहो   इस  धरती   से ,  हम  इसकी पूजा करते  है ।
अपनी  जान निछावर कर , हम इसके मान को रखते है ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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