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मंगलवार, 3 अगस्त 2010

नियम...वो, जो हम कहे

मित्रों,
      मैंने सुना है उदारीकरण के पहले जब ताकत कुछ लोगों की मुठ्ठियों में कैद थी और लाल-फीताशाही का जमाना था तो वही होता था जो कुछ गिने चुने लोग चाहते थे, फिर उदारीकरण का दौर और "कार्पोरेट कल्चर" का जमाना आया मगर क्या लाल-फीताशाही समाप्त हो गयी ?, हाँ कुछ हद तक मगर केवल उपभोक्ताओं के लिए , मगर उपभोक्ताओं की सेवा में तत्पर बेचारे सेवकों के लिए भी क्या यह सत्य है ? तो सुने .........

ये जरुरी नहीं , तुम सर झुकाकर चलो ।
केवल मेरी सुनो , ना कुछ अपनी  करो ।
मगर क्या करोगे? ,  है   व्यवस्था   यही ।
इसे  शासन   कहो ,   या   कहो   मज़बूरी ।

जो कहा मैंने तुमसे, बस वही है नियम ।
मुझसे ऊपर भी चलता , यही है नियम ।
जो कुछ लिखा है, काले अक्षरो में कहीं ।
हकीकत में होता यारों, वो नहीं है कहीं ।
लिखा है नियम सब ,   दिखावे के लिए ।
जैसे हाथी के दो दांत, सजावट के लिए ।
यूँ ही चलती है व्यवस्था , सदा से यहाँ ।
नींचे से ऊपर  कहीं भी ,  है राहत कहाँ ?
तुम कहो चाहे बनिया की, दुकान इसको ।
या कहो घर की खेती , हो हैरान इसको ।
तुमको करना पड़ेगा ,   हम जो भी कहे ।
तुमको सहना पड़ेगा ,   हम जो भी करें ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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