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शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मेरी व्यथा...

मित्रों , अपनी व्यथा बहुत दिन दबाये रखने के बाद आज अंतत आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ .........
ऊब गया हूँ स्वांग रचाकर, वर्षो से मानवता का ।
चाह रहा हूँ ढोंग हटाकर, दानवता को जीने का ।
मन में बैठी घृणा है गहरे, करता दिखावा प्रेम का ।
तिरस्कार का गला दबाकर, करता दिखावा आदर का ।।

मन को भाता लोभ सदा पर, त्याग का पाठ पढाता हूँ ।
सच के नाम पर जाने कितने, झूंठ मै रोज सुनाता हूँ ।
बैर भाव को संचित कर, मै मित्र बनाता  जाता हूँ ।
दानवता के मुखड़े पर,मानवता का रंग लगता हूँ ।।

कष्ट मुझे है दानवता को, रोज छिपाया करता हूँ ।
जग वालों की ख़ुशी के कारण,स्वांग रचाया करता हूँ ।
आखिर मै भी दानव हूँ, मेरा भी अंतर्मन है ।
मानव के जितना पाखंडी,नहीं अभी मेरा मन है ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

         ०५/०५/२००४ को परमपूज्य लकड़-दादा पूर्व लंकाधिपति श्री श्री रावण जी, श्री कुम्भकरण जी ( टुच्चे विभीषण को छोड़कर जिसने राम के साथ जाकर लुच्चई की ) एवं लकड़चाचा मेघनाथ जी को इस आशय के साथ सादर समर्पित  कि वो मुझे सच्चा दानव बनने का अभिशाप देंगे ।

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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