हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

माफ़ करो (मुलायम) सिंह

माफ़ करो (मुलायम) सिंह जी

बहुत हो गया स्वांग तुम्हारा !

पहले ठगते हो जन के मन को फिर कहते हो भूल हो गयी.. ?
फिर से दो मौका हमको अब निष्ठांपूर्वक करेंगे सेवा ..!

कौन सी सेवा,  किसकी सेवा , कैसी सेवा ? बना रहे हो मुर्ख किसे ?
स्वतंत्र धर्म-निरपेक्ष भारत को अस्थिर कर उसे जाति-पांति और संप्रदाय के खांचो में करने की सेवा....!
अहो पहले भी कहते थे कुछ लोग तुम्हे मुल्ला-आयाम सिंह !
क्यों जाति बदल ली तुमने जब साथ में आये कल्याण सिंह ?
तुम नेता हो हम जनता है, तुम नाटक हो हम दर्शक है, 
पर इससे तुमको यह अधिकार नहीं मिल जाता है, जब जो चाहो वो पाठ पडावो , जैसा तुमको भाए वैसा सत्ता पाने को स्वांग रचावो ।
जो करे स्वार्थ की पूर्ति तुम्हारी उसको जनता का हमदर्द बताओ,
मित्र बताकर  उसको अपना गलबहियां डाले फोटो खिचावाओ ।

रचो धर्म और धर्म-निरपेक्षता  की तुम मनमानी परिभाषा,
फिर जब चाहो जिसको चाहो सांप्रदायिक बतलाओ ।
यूँ  मूल रूप से तुम भी जन हो,
जन होने के नाते तुमको हक़ है जिसको चाहो मित्र बनाओ जिससे चाहो करो शत्रुता,
जैसा मन को भाए वैसा करते रहो संविधान की सीमा में।

पर क्या तुम भूल गए जिस क्षण कोई नेता होता है तब खो देता है अधिकार मनमाना स्वांग रचाने का।

पहले भी सुना गया है जग में - " मेरे मन को भय मैंने कुत्ता मार के खाया "
पर तब रजवाड़ो  की सत्ता थी जब राजा करते थे राज यहाँ ,
तब जनता नहीं हुआ  करती थी केवल रंक रहा करते थे।
तुम राज वंश के नहीं हो राजा ना बेटा तेरा राजकुवर है ,
हाँ घर की दुकान है सपा अभी यह अमर सिंह कह गए यहाँ ।
अब लोकतंत्र है नेता जी, है वो भी समझदार जिन्हें देनी  है मांफी 
और मन को भाना  कुत्ता मार के खाना नहीं रह गया है कृत्य मनमाना। ( परमिशन लेनी होगी जानवरों के सेवा दल से )

तब

थूको-चाटो , या पहले चाटो फिर थूको ! 
तुम स्वतंत्र हो,
मै कब कहता? कि पहले थूक के तुमने सही किया या गलत किया था, या अब चाट के तुमने सही किया या गलत किया ?
हाँ तुम स्वतंत्र हो,  है ये अधिकार तुम्हारा,
पर यह केवल तब तक है जब तक थूक के छींटे ना जाएँ औरों पर।

माफ़ करो कह देने भर से कोई कृत्य बदल नहीं जाता है,
"राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवादित परिसर"  तुम्हारे कहने से केवल मस्जिद नहीं हो जाता है ।
किसी एक साम्प्रदाय का पिछलग्गू , कभी जनमानस का नेता नहीं कहलाता है।
जोड़ तोड़ करके शायद फिर तुम सत्ता पा जाओ,
पर जनता का एक निष्ठ  सेवक होने का ना तुम झूंठा स्वांग रचावो ।

हम जनता है इसका मतलब हम मूर्ख हो गए ? ,
यह सत्य नहीं है नेता जी...!
मजबूरी है कुछ अपनी , कुछ संविधान में छेद रह गए ।
वर्ना तुम्हे बताते हम, नेताओं के बंजर कितने खेत हो गए ।


समझे कुछ नेता जी.......
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG


मेरी व्यथा...

मित्रों , अपनी व्यथा बहुत दिन दबाये रखने के बाद आज अंतत आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ .........
ऊब गया हूँ स्वांग रचाकर, वर्षो से मानवता का ।
चाह रहा हूँ ढोंग हटाकर, दानवता को जीने का ।
मन में बैठी घृणा है गहरे, करता दिखावा प्रेम का ।
तिरस्कार का गला दबाकर, करता दिखावा आदर का ।।

मन को भाता लोभ सदा पर, त्याग का पाठ पढाता हूँ ।
सच के नाम पर जाने कितने, झूंठ मै रोज सुनाता हूँ ।
बैर भाव को संचित कर, मै मित्र बनाता  जाता हूँ ।
दानवता के मुखड़े पर,मानवता का रंग लगता हूँ ।।

कष्ट मुझे है दानवता को, रोज छिपाया करता हूँ ।
जग वालों की ख़ुशी के कारण,स्वांग रचाया करता हूँ ।
आखिर मै भी दानव हूँ, मेरा भी अंतर्मन है ।
मानव के जितना पाखंडी,नहीं अभी मेरा मन है ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

         ०५/०५/२००४ को परमपूज्य लकड़-दादा पूर्व लंकाधिपति श्री श्री रावण जी, श्री कुम्भकरण जी ( टुच्चे विभीषण को छोड़कर जिसने राम के साथ जाकर लुच्चई की ) एवं लकड़चाचा मेघनाथ जी को इस आशय के साथ सादर समर्पित  कि वो मुझे सच्चा दानव बनने का अभिशाप देंगे ।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

"भाग्यो प्रधान: कर्मा द्वितीया"

भाग्यो प्रधान: कर्मा द्वितीया...."
ये मेरा मानना है और वर्तमान में यही सत्य भी है चाहे आप माने या न माने..!
हालांकि भाग्य प्रधान है अथवा कर्म ?
इस पर ठीक उसी प्रकार से बहस किया जा सकता है जैसे " पहले मुर्गी आई या अंडा।"

वैसे पहले आई तो मुर्गी ही थी और अंडा देना बाद में उसने शुरू किया। भ्रम में न पड़े ... वास्तव में पहले मुर्गी अंडा नहीं बच्चा देती थी जिसका बर्थ रिकार्ड हम सब मिलकर कभी ज्यादा फुर्सत होने पर खोज सकते है.... वैसे आज का समाचार पत्र भी मेरे कथन को बल देता है।

खैर यहाँ मै बात "भाग्यो प्रधाना कर्मा: द्वितीया" की करने जा रहा हो तो फिलहाल मुर्गी और उसके अंडे को अभी भूल जाय।

कर्म क्या है ?  बताने की आवश्यकता नहीं आप सभी जानते है ( कुछ अकर्मी लोगों के सिवाय)।
भाग्य क्या है ? सहज सरल सब्दो में कहे तो यह आपके द्वारा किये गए समस्त कर्मो के प्राप्त/अप्राप्त फल के लेखा बही का किसी उल्लेखित पल में  बकाया हिसाब भर है।

मगर भाग्य और कर्म का हिसाब  इतना सहज सरल भी नहीं है क्योकि भाग्य वास्तव में यदि आपके कर्मो का ही शेष लेखा बही है तो इसका अर्थ है कि यह सीधे सीधे आपके कर्मो पर निर्भर करता है ।

तुलसीदास जी ने कहा है " होइहै वही जो राम रच राखा"  जिसके आधार पर प्राय: लोग कहते है कि होगा वही जो भगवान ने निर्धारित कर रखा है। मगर यह किसके सन्दर्भ में कहा गया है ? हमारे-आपके या रामचंद्र जी के सन्दर्भ में ?  निश्चित ही यह रामचंद्र जी के सन्दर्भ में कहा गया है कि होगा वही जो रामचंद्र जी के कर्मो के प्राप्त/अप्राप्त फल का बकाया हिसाब होगा ।

भगवान श्री कृष्ण की गीता कहती है कि :-  
" कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंशान, जैसा कर्म करेगा  वैसा फल देगा भगवान "
मगर कब और कितना यह स्पष्ट नहीं है यह भगवान ने अपने अधिकार में रखा है।
फल कभी पहले आवो पहले पावो के अनुरूप पंक्तिबद्ध होकर मिलाता है तो कभी पंक्ति तोड़ कर अलग से तत्काल भी मिल जाता है।  इसका नियम अंग्रेजी के व्याकरण के अनुरूप ही चलता है , तमाम नियम है  मगर कोई भी नियम सर्वव्यापक नहीं है  , सबके  अपवाद यहाँ है ।

कर्म के पुजारी कहते है कि "कर्म से आप अपना भाग्य बदल सकते है, केवल भाग्य के सहारे बैठने वाले को कुछ भी नसीब नहीं होता है " मगर क्या भाग्य आपके कर्म को नहीं निर्धारित करता है ?

चलिए जरा एक उदाहरण से  समझाने की कोशिश करता हूँ........
एक घर जो किसी जगह पर स्थित है और उसमें रात्रि के समय तीन व्यक्ति हैं ठहरें है - पहला और दूसरा व्यक्ति जाग रहें है, जबकि तीसरा गहरी नींद में हैअचानक भूकंप आने के संकेत है ।
पहला व्यक्ति तत्काल घर से बाहर निकल कर  खुले आसमान के नीचे आ जाता है ।
दूसरा यह मान कर कि यह तो मामूली सा भूकंप है अभी ख़त्म हो जाएगा घर में ही रहता है और India-Tv पर भूकंप के चटपटे समाचार की तलाश में टी.वी. आन करने में व्यस्त हो जाता है ( आपकी इच्छा हो तो आप किसी और समाचार चैनल को मान लें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है मगर चटपटे  समाचार के लिए मै वही जाता हूँ )
और तीसरा व्यक्ति जो गहरी नींद में है उसे ताजे घटनाचक्र के बारे में कोई जानकारी नहीं है तो वो बेचारा सोता रहता है।
और फिर अचानक घर  गिर जाता है जिसके कारण पहला  व्यक्ति तो बच जाता है मगर बाकी के दो मारे जाते है..!
तो कर्म के पुजारी कहेंगे कि पहले ने उचित समय पर उचित कर्म किया और बच गया , बाकियों ने उचित कर्म नहीं किया इसीलिए मर गए,  भाग्य के पुजारी कहेंगे कि जिसके जो भाग्य में था वैसा हुवा इसमें कोई क्या कर सकता है ?
चलिए मान लेते है कि पहले ने कर्म किया और दुसरे ने उचित समय पर उचित कर्म नहीं किया मगर तीसरे को तो कोई कर्म करने का अवसर ही कहाँ मिला ? वो तो बेचारा सो रहा था !
क्या बाकी दोनों का उचित कर्म ना कर पाना उनके भाग्य द्वारा निर्धारित नहीं है ?
और अगर यह सत्य  है तो कैसे कह सकते है कि हम सदैव अपने कर्म से भाग्य बदल सकते है...
हाँ यह कभी-कभी ही सत्य है जब आपका भाग्य भी इस तरह का हो कि आप अपने कर्म से भाग्य बदल सके ।

तो :- १. व्यक्ति अपने कर्मो से अपना भाग्य बनाता है।
        २. आपका भाग्य ही यह निर्धारित करता है कि आप कब और क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे।

और जैसा कि पहले कहा है कि कब और कितना फल मिलेगा यह स्पष्ट नहीं है और यह भगवान ने अपने अधिकार में रखा है।
इसे जरा फिर से दूसरे उदाहरण, भारत के सबसे ताकतवर पद के सन्दर्भ में देखें -
१. प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रा गाँधी को पहली बार सत्ता उनके  भाग्य से प्राप्त हुयी (कांग्रेसी इससे असहमत हो सकते है मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है) फिर  जब वो सबसे ज्यादा ताकतवर थी और सत्ता पाने हेतु जब सबसे ज्यादा कर्म किया तभी उनके भाग्य ने उनसे सत्ता छीन ली और फिर जब उन्होंने कुछ भी विशेष कर्म नहीं किया तब गैर कांग्रेसी सरकार के कर्मो ने उन्हें फिर सत्ता का सुख दे दिया।

२. फिर अचानक एक दुखद घटना घटित होती है और भाग्य राजीव गाँधी को अचानक प्रधानमंत्री बना देता है। फिर जब वो दुबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए कर्म करते है तो पुन: भाग्य अपना खेल खेलता है ।

३. इस के पहले पी वी नरसिंहा राव जिन्हें अधिक उम्र हो जाने के कारण राजीव गाँधी ने टिकट नहीं दिया था और उन्होंने अपने समस्त  राजनैतिक कर्म करने और उसके अनुरूप फल प्राप्त कर लेने के बाद मन से अथवा बेमन से लगभग संन्यास ही ले लिया था को अचानक पुन: भाग्य वापस राजनीत में ले आता है और बिना किसी तात्कालिक कर्म के भाग्य अचानक प्रधानमंत्री बना देता है (इस बार कांग्रेसी इससे सहमत होंगे।
एन.डी तिवारी और पवार साहेब अपने सब प्रकार के कर्मो के बाउजूद उस पद से महरूम हो जाते है। फिर जब दुबारा पी वी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश करने का कर्म करते है तो इस बार उन्हें भाग्य बाहर का रास्ता दिखा देता है।
तो प्रधानमंत्री बनाने के लिए जब कर्म नहीं किया गया तो पद मिला और जब कर्म किया गया तो पद नहीं मिला !

और देखे... तीसरा उदाहरण

प्राय: देखने में आता है कि एक गरीब बच्चा अपने अथक परिश्रम एवं उचित कर्म से संसार का सबसे धनी व्यक्ति बन जाता है।
बहुत से धनी व्यक्ति अपने अनुचित कर्म से अपने पुरखो का संचित धन भी नष्ट कर पुन: गरीब हो जाते है।
यह सब तो कर्म का प्रताप माना जा सकता है
मगर
  • एक बच्चा उस घर में जन्म लेता है जहाँ सोने चांदी के चम्मच से उसे दूध पिलाया जाता है।
  • दूसरा उस घर में जन्म लेता है जहां कांच या प्लास्टिक के बोतल से उसे दूध पिलाया जाता है।
  • और एक तीसरा बच्चा पैदा होते  ही किसी सडक या कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है, कभी बच जाता है तो कभी पहले दिन ही संसार से विदा हो जाता है ।

तो यह  एक दिन का नवजात बच्चा क्या कर्म कर सकता है और कैसे अपना भाग्य बदला सकता है ?

अर्थात भाग्य तो पहले दिन से ही अपना खेल दिखाना शुरू कर देता है..., कर्म जब होगा तब होगा......!

     तो "भाग्यो प्रधान: कर्मा द्वितीया...." यही तो मै कह रहा हूँ ।

और  भगवान ..... वो तो एक साहूकार है जिस पर आगे कभी विचार रखूगा
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कसौटी

किसी ने क्या खूब कहा है -
" आप जिस कसौटी पर परखते है हमको,
अगर आपको परखा जाय तो अंजाम क्या होगा "

हम इस संसार में,मानवीय रिश्तों के मायाजाल में और शुद्ध व्यवसायिक लेन देन में जिन कसौटियो पर दूसरो को परखते है और उनके बारे में जितनी सरलता से कोई भी निष्कर्ष निकाल लेते है कभी हमने सोंचने की जरुरत महसूस की कि अगर हमे भी उन्ही कसौटियो पर परखा जाय तो वास्तव में क्या निष्कर्ष होगा ?

शायद वही जो हम दूसरो के लिए निकालते है ...!

और अगर अपने बारे में यह मानने को हमारा मन तैयार नहीं है और इसके लिए हमारे पास तरह तरह के तर्क है तो इसका अर्थ है कि हमारे अन्दर का अहंकार झुकने को तैयार नहीं हो रहा है!

तो आगे से यह कहने के पहले कि " अगर मै उसकी जगह होता तो मै एसा करता या वैसा नहीं करता" दो पल के लिए इमानदारी से स्वय को अपनी उन्ही मान्यताओ,काल पात्र समय और संबंधो की जटिलताओं के दायरे में रखकर विचार करें और निर्विकार भाव से तमाशा देखें ।

आपको अपने आप अपनी असलियत पता चल जायेगी । क्योंकि ......

खोखले आदर्श और कोरे सिद्धांत, 
दूर से बड़े मनोहारी लगते है ।
इनके आगे छटा बिखेरते सप्तरंगी, 
इंद्र धनुषो के रंग भी फींके लगते है ।
लेकिन क्या सच में ऐसा ही होता है,
शेर कि खाल में सियार नहीं चलता है?
पूंछो जरा उनसे जिन पर गुजरता है,
ढोल कि पोल का उनको पाता होता है।
जब तक है किस्मत बिकेगा हर मॉल,
फिर कौन पूंछता क्या है तेरा हाल ।
फिर तो लगनी है दोनों की बोली,
किसी अजायबघर में सजनी है डोली ।
०८/०५/२००४
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

क्या गंगा भी सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएगी...?

"कलियुग के पाँच हजार साल बीतने पर गंगा भी पृथ्वी से चली जाएगी।" - देवी भागवत पुराण


यह पंक्ति गंगा के स्वर्ग से नीचे उतरने पर किए गए विलाप के उत्तर में श्री हरि  विष्णु के दिए गए एक आश्वासन के तौर पर है। पुराणों में कहा गया है की कलियुग में पाप, अन्याय, अत्याचार और अधर्म इतना बढ़ जाएँगा कि किसी भी दैवीय रचना का अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल होगा।

जिस गंगा के किनारे प्रदूषण और अशुद्धता को वर्जित किया गया था उसमें विकास के नाम पर मानव मल-मूत्र से भरे नाले, कारखानों के असुद्ध जल, औद्योगिक कचरा तो कई दशको से मानव सभ्यता प्रवाहित कर ही रही थी और अब रही सही कसर युगों युगों से अविरल बहती पतित पावन गंगा के अविरल प्रवाह को बाँध कर गंगा की नयी पहचान गंग नहर के रूप में देकर कलयुगी भगीरथो के द्वारा किया जा रहा है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार किसी भी नदी में प्रदूषण फैलाना अधर्म या पाप है जिसका पालन कर हमारे पुरखो ने न केवल गंगा वरन अन्य नदियों की पवित्रता सदा बनाए रखा परन्तु आज प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण संतुलन बिगाड़ने के तौर पर आधुनिक सभ्यता उस अधर्म को जोर-शोर से कर रही है।

कहते है की 20वीं सदी के शुरू में हरिद्वार में जब गंग नहर बनाने का काम शुरू हुआ तब कलियुग के पाँच हजार साल पूरे हो गए थे।
कैसी विडम्बना है कि जिस गंगा के जल को पहले मरते समय मुह डाला जाता था कि शरीर छोड़ने वाली आत्मा इस संसार के मोह-माया के बन्धनों से मुक्त हो भव-सागर के पार हो जाय आज उसी गंगा के हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक के जल को अगर स्वस्थ व्यक्ति भी शायद पी ले तो उसकी आत्मा निश्चित तौर पर इस संसार से मुक्त हो जाने को मजबूर हो जाएगी।

यही तो है कलियुग और कलियुग के भगीरथो का योगदान......
आज गंगा जल टनल नंबर एक , दो आदि से बहता है और परिणाम यह है कि आज संगम तट पर स्नान करने लायक जल भी आम दिनों में नहीं रहता है और जैसे पुराणो में वर्णित कथा के अनुसार भागीरथ की तपस्या से खुश होकर शंकर ने अपनी जटाओं से गंगा की एक धारा धरती पर छोड़ी थी उसी तरह आज उत्तरांचल की आधुनिक सरकार जब अपने बंधो के पट खोंलती है तो पुनः नाम मात्र की गंगा (पतित पावनी गंगा को केवल पतित गंगा बना दिया गया है) की एक धारा कुछ समय के लिए संगम तक फिर आ जाती है वरना तो उसके खाली प्रवाह मार्ग में नालो का जल ही बहता रहता है।

और गंगा ही क्यों हमने आज किस नदी को बख्सा  है ..........

ज़रा यमुना की बात हो जाय
कहते है की जब भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया था तो यमुना में कालिया नाग रहता था जिसका जहर इतना विषैला था कि पूरी यमुना काली हो गयी थी, उसके आसपास इंसान तो इंसान यमुना से निकलती जहरीली गैस से परिंदे भी दम तोड़ देते थे मगर भगवान श्री कृष्ण ने कालिया नाग को जाने को मजबूर करके यमुना को फिर से पावन कर दिया था ।

हालांकि मैंने अपनी वर्त्तमान आँखों से उस जमाने की विषैली यमुना को नहीं देखा था मगर कुछ वर्षो पहले जब मथुरा गया और मथुरा के विवादित जन्म भूमि परिसर के निकट मेरे मासा ने मुझे यमुना में स्नान करने या कम से कम उसके जल से आचमन करके पुन्य कमाने के अवसर की याद दिलाई तो उस काली यमुना को देख कर मुझे लगा की पुराना कालिया नांग अपने भरे पूरे परिवार के साथ यमुना में निवास करने के लिए फिर से आ गया है और उसमे गिरते काले नालो के जल को देखकर प्रतीत हो रहा था की जैसे उस नाग की काली लपलपाती जिव्हा ने पूरे मथुरा शहर को अपने आगोश में ले लिया है।

हालांकि द्वापर की तरह इस कलियुग में मै यमुना के जल से बेहोस तो नहीं हुआ (शायद जहर की मात्रा सहन करने की आज के कलियुगी मानवों की योग्यता के कारण) मगर धर्म के प्रति अपने अगाध श्रधा के बावजूद भी मै यमुना में स्नान करने या कम से कम उसके जल से आचमन करके पुन्य कमाने की हिम्मत नहीं कर सका (शायद ये मेरे पाप का फल था या मै उस काले कलूटे विषैले जल से और ज्यादा पापी नहीं होना चाहता था .......! )

वैसे 'सरस्वती' विलुप्त हो चुकी है, 'छिप्रा' जिसके नाम लेंने भर से ही संसारियों के सारे पाप मिट जाते थे आज वही संसार से मिट गयी और जो अवशेष है वो आप भी जानते होंगे क्या है...!

तो सत्य ही कहा गया है कि कलियुग के पाँच हजार साल बीतने पर गंगा पृथ्वी से चली जाएगी और हो भी क्यों ना अब तो गंगा पुत्र भीषम भी इस संसार में नहीं है जिनके मोह में वो धरती पर रहें ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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