मेरी डायरी के पन्ने....

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

परिणिति

परिणिति क्या होगी इसका, इतना ज्यादा मंथन क्यों ?
लक्ष्य अगर सुनियोजित है , परिणाम इतर कैसे होगा ।
अहम् बिंदु निर्धारित करना , अपने लक्ष्यों को पहले ।
चुनकर सही मार्गों को , पथ की दूरी को कम करना ।
परिणाम हाथ में ईश्वर के , उस पर करना मंथन क्यों ।
कर्म ही केवल वश में अपने, फिर उससे पीछे हटना क्यों । 

सोंच रहे क्या जग वाले , इससे तुमको लेना क्या ?
क्या सोंचेगे कुछ अपने , इसकी इतनी फिक्र है क्या ?
खाली हाथ ही आये हो , खाली हाथ ही जाओगे ।
अपने पीछे जग वालों को , सोंचो क्या दे जाओगे ।
करो मार्ग पर दृष्टि केन्द्रित , अवरोधों पर करो विचार ।
पार करें हम उनको कैसे , यही बारम्बार करो विचार ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

  1. रंग बिरंगा आपका ब्लॉग

    और लिखने की आपकी अदा

    दोनों पसंद आयी.

    बढिया.

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

(हिन्दी में प्रतिक्रिया लिखने के लिए यहां क्लिक करें)