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रविवार, 26 सितंबर 2010

जिंदगी

क्यों बनाते जिंदगी को , नर्क जैसा तुम यहाँ ।
नर्क तो पहले से ही , हर तरफ फैला यहाँ ।
चार दिन की जिंदगी , तुम उसे हँस कर जियो ।
दुश्मनी सब भूल कर , दोस्त बनकर तुम जियो ।
आज लगा है हाट यहाँ , बस दो पल का ठाठ यहाँ ।
गुजरेगा ज्यों कारवां , खाली होंगे सब घाट यहाँ ।
आज बहारे बसंत यहाँ , झुंकने दो फूलों की डालें ।
फिर जब पतझड़ आएगा , सूनी होंगी सारी डालें ।
जब तक गाती है कोयल, गाने दो उसको मस्ती में ।
कोयल के चुप होते ही , बस कौवों होंगे बस्ती में ।
मत बाँधो तुम नदियों को , बहने दो जब तक बहती हैं ।
तेरे पापों के कलुष से वो , पहले ही मैली रहती हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

  1. कविता में बहुत अच्छा संदेश दिया है आपने...
    इस रचना के लिए बधाई स्वीकर करें.

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स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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