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गुरुवार, 16 सितंबर 2010

बदलाव


जीने की कला हम सीख रहे , जीने की चाहत खोकर भी ।
मरने की कला हम भूल गए , मरने की चाहत रखकर भी ।
वो दौर कठिन था फिर भी हम , औरों को सिखाया करते थे ।
ये दौर बहुत ही नाजुक है , अब स्वयं को जानना सीख रहे ।
वो उम्र और थी यारों जब , परवानों  सा हम जीते थे ।
ये उम्र अलग है यारों अब , इंसानों सा हम रहते है ।



देखो कैसे समय निरंतर , धीमे धीमे बदल रहा है ।
सभी पुरातन चीजें हमसे , चुपके चुपके छीन रहा है ।
भले दिया है उसने हमको , कुछ एक नये उपहार अभी ।
कुछ नूतन रिश्तों के पौधे , कुछ कंधों पर नये भार अभी ।
लेकिन भुला नहीं हम पाए , उस स्वर्णिम मधुर संसार को ।
जीवन मरण के बंधन में फिर , हम सीख रहे व्यापार को ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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