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शनिवार, 7 अगस्त 2010

ये वासना का सागर है ..!

यूँ  वासनाओं से भरी  , क्यों हो गयी है जिंदगी ?
भूल कर सुख चैन को , क्यों रो रही है जिंदगी ?
वासनाएं हैं अलग , पर मूल सबका एक है ।
बाँह में सारा जगत  ,   लेने को हम बेचैन हैं ।

है किसी का स्वप्न वो , सम्राट बन जाये अभी ।
तो किसी का स्वप्न है, जग लूट सब लाये अभी ।
चाहता है मन कभी हो , 'कृष्ण' सा जीवन अभी ।
अपनी मुरली की धुनों पर ,  रास रचवाये अभी ।

फिर अचानक त्याग की , चाहत पनपती है कभी ।
नाम पर अपने चले ,  कोई   धर्म - संप्रदाय कभी ।
उम्र चाहे जो   भी हो ,  मन    ना    होता बूढ़ा   कभी ।
वासना का खेल यूं ही , रुकता नही जग में कभी ।

राग-रंग का दौर रहे , हर जगह पे अपनी ठौर रहे ।
इन्द्रधनुष के रंगों से , सदा जीवन ये परिपूर्ण रहे ।
ऐसी ही जाने कितनी..?  ,  बातें  मन में आती है ।
वासना के सागर में , नित लहरें उठती जातीं  है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
    कल (9/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
    और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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