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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

थोड़ा सा जल मुझे चाहिए..

प्यास लगी है मन में मेरे , ज्वाला जलती तन में मेरे ।
विकल हो रहे नेत्र हमारे , डग-मग होते कदम हमारे ।
जन्म जन्म की प्यास लगी है , व्याकुल मन को करने लगी है ।
देख पास शीतल जल धारा , तन को हर्षित करने लगी है ।

पल भर का अवरोध नहीं , अब मन को जरा सुहाता है ।
जी भर कर जल का पान करूँ , यह भाव ही मन में आता है ।
क्या कहा निषिद्ध है जल धारा , उस पर नहीं अधिकार हमारा ।
पर भुला सभी प्रतिबंधो को , मन व्याकुल होता सम्बन्धो को ।

क्या होगा जो अनाधिकार , एक अंजलि भर जल पी लूँगा ।
क्या इससे पूरी जलधारा को , अपवित्र अछूत मै कर दूँगा ।
तुम चाहो तो जाकर पूंछो , उस अमृतमय जलधारा से ।
क्या ओंठो को मेरे छूने की , कोई चाह नहीं जलधारा को ।

प्यास बुझाए बिना पथिक की , क्या धर्म निभा वो पाएगी ।
मुझको प्यासा छोड़ अकेला , क्या सुख से वो सो पायेगी ।
तो मिलन हमारा होने दो , अवरोध व्यर्थ ना खड़े करो ।
सूख रहे ओंठो को मेरे , थोड़ा सा जल बस पीने दो ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 

काल और हम ...

कालचक्र की गति सनातन , ठहराव नहीं उसकी गति में ।
आठो पहर के हर एक पल , घूमे रथ के पहिये निरंतर ।
जल थल से लेकर नभ तक , धरती और पाताल सभी ।
घूम रहे प्रतिबल बन छाया , अदभुद कालचक्र की माया ।

सेवक बनकर पीछे चलते , दशो दिशाओं के दिगपाल ।
हाथ जोड़ कर शीश नवाते , श्रृष्टि के सारे महिपाल ।
भूत भविष्य और वर्तमान , उसके रथ के अश्व महान ।
एक रास में एक साथ ही , उन्हें जोतता है महाकाल ।

कभी यहाँ और कभी वहां , ना जाने किस पल रहे कहाँ ।
किसको कब वो राज दिला दे , कब राजा को रंक बना दे ।
बैरी दल के अन्दर भी , विश्वस्थ मित्रता तुम्हे दिला दे ।
विश्वस्थ सहचरों की टोली , जाने कब वो बागी बना दे ।

महाकाल की एक हांक से , उलट पुलट हो जाती श्रृष्टि ।
सूर्य चंद्र और तारों तक की , गति दिशाहीन हो जाती ।
ऐसे में हम मानव क्या  , अभिमान करे अपने ऊपर ।
कर्त्तव्य हमारा है पुरषार्थ , बस उसे करे निर्मल होकर ।

 सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG