मेरी डायरी के पन्ने....

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

आग और राख..

राख के ढेर को, ना हिकारत से देखो।
आग की लपटे थी, वो कुछ देर पहले।
आग जलती जहाँ, राख पैदा वो करती।
राख  के ढेर में ही, छिपकर वो रहती।
कभी वो सुलगती, कभी वो धधकती।
कभी वो भयानक, लपटों में जलती।

अपनी तपिश में वो, है सबको जलाती।
चिनगारियो को वो, आँचल में छिपाती।
जलाकर सभी कुछ, फिर वो सिमटती।
मिटाकर सभी कुछ, राख का ढेर बनती।

ये बताती हमें है,नश्वर सब जगत में।
ना इतराओ तुम,इस नश्वर जगत में।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 11 सितंबर 2013

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती...

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती , कौन रहना चाहता है उसके बिना ?
और बिना मह्त्वकांक्षाओं के कहो , मिला है किसी को कहाँ कुछ यहाँ ।
भले हो वो शासक किसी देश का , या हो वो सिपाही किसी भेष का ।
वो करता हो चाहे व्यापार कोई , या हो वो किसी का खरीददार कोई ।
देता भले हो जगत को वो शिक्षा , या लेने वो जाता हो स्वयं ही दीक्षा ।
चाहे लुटाता जगत को धरम हो , या अकेले निभाता अपना करम हो ।

अगर है जीवन में हमें कुछ करना , मह्त्वकांक्षी निश्चित ही होगा बनना ।
मगर ये तभी तक ख़ुशी हमको देती , जब तक गुलामी नहीं इसकी होती ।
बनता ये जिस दिन हमारा व्यसन है , उसी दिन गुलामी में शवसन है ।
फिर नचाने ये लगता पोरों पे अपनी , चलाने ये लगता राहों पे अपनी ।
जब हम लुटाते हैं आजादी अपनी , तभी हम बुलाते है बर्बादी अपनी ।
अच्छे और बुरे का हम अंतर भुलाते , किसी भी तरह से विजयश्री लाते ।

फिर मिटाते उन्ही को जो कल थे अपने , हमारे लिए जो बुनते थे सपने ।
फिर आता है वो पल हमारे लिए भी , जहाँ हम अपने किये को जिए भी ।
अच्छा है होना मह्त्वकांक्षी यारो , मगर उतना ही जो हित में हमारे ।
तभी हमको मिलती उससे ख़ुशी है , वही सबको देती सच्ची ख़ुशी है ।
उसी से हमारा वा जगत में सभी का , होता है सच में कल्याण थोड़ा ।
वरना भुलाकर हमको हमी से , मह्त्वकांक्षाये ही याद रहती है सारी ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

रविवार, 1 सितंबर 2013

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर..?

सब उसका है , जग जिसका है ।
जीवन उसकी , मृत्यु भी उसकी ।
सुख भी उसका , दुःख भी उसका ।
धूप भी उसकी , छाँह भी उसकी ।
जल भी उसका , थल भी उसका ।
नगर भी उसका , गाँव भी उसका ।

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर , लेकर क्या मै आया था ?
मेरी सारी सुख सुविधा को , उसने ही तो जुटाया था ।
बिना दिए कुछ मूल्य किसी का , सब कुछ उससे पाया था ।
अफसोस उसे ही भुला दिया , जिसने सब कुछ लुटाया था ।
माया ठगनी है ही ऐसी , लोभ मोह में उलझाया था  ।
यहाँ अपना पराया कोई नहीं , सबने बस भरमाया था  ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG